Sunday, January 6, 2019

'मनमोहन सिंह को बेचना बीएमडब्लू कार बेचने जैसा था'

अगर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल पर किताब लिखने वाले उनके प्रेस सलाहकार रहे संजय बारू की बात मानी जाए तो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के संबंधों की पहली परीक्षा हुई थी जब 15 अगस्त, 2004 को उन्हें लाल क़िले की प्राचीर से देश को संबोधित करना था.

बारू से कहा गया कि वो भाषण से एक दिन पहले उसके ड्रेस रिहर्सल यानी पूर्वाभ्यास में भाग लें. जब वो लाल क़िले पर पहुंचे तो उन्होंने जिज्ञासावश भाषण के दौरान होने वाले 'सिटिंग अरेंजमेंट' पर नज़र दौड़ाई.

भाषण मंच से थोड़ा पीछे मनमोहन सिंह की पत्नी गुरशरन कौर की कुर्सी थी. उसके बाद वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों, विपक्ष के नेता और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी थी. पहली पंक्ति से सोनिया गांधी की कुर्सी नदारद थी.

जब बारू ने रक्षा मंत्रालय के अधिकारी से पूछा कि सोनिया को कहाँ बैठाया जाएगा तो उसने चौथी या पांचवी पंक्ति की तरफ़ इशारा कर दिया जहाँ उनकी बग़ल में नजमा हेपतुल्लाह को बैठाया जाना था.

बारू ये सुन कर अवाक रह गए. उन्होंने मन में सोचा कि इससे मनमोहन सिंह को व्यक्तिगत तौर पर बहुत शर्मिंदगी होगी और सोनिया गांधी भी अपमानित महसूस करेंगी.

संजय बारू ने अपनी किताब 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर - द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ़ मनमोहन सिंह' में मनमोहन सिंह को कहते बताया है कि उनकी नज़र में पार्टी अध्यक्ष का पद प्रधानमंत्री के पद से अधिक महत्वपूर्ण है.

मैंने संजय बारू से पूछा कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के संबंधों में सिर्फ़ यही एक जटिलता थी या कुछ और भी?

बारू का जवाब था, "काफ़ी साफ़-साफ़ संबंध था दोनों का. मनमोहन सिंह बहुत आदर से उनसे पेश आते थे और सोनिया गांधी भी उनसे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति की तरह व्यवहार करती थीं. लेकिन मनमोहन सिंह ने ये मान लिया था कि पार्टी अध्यक्ष का पद प्रधानमंत्री के पद से अधिक महत्वपूर्ण था. हमारे देश में ये पहली बार हुआ था."

"पचास के दशक में आचार्य कृपलानी जब कांग्रेस के अध्यक्ष थे तो उन्होंने नेहरू से कहा था कि पार्टी अध्यक्ष के नाते आपको मुझे बताना होगा कि आप सरकार में क्या करने जा रहे हैं? जवाहरलाल नेहरू ने कृपलानी से कहा कि मैं आपको इस बारे में कुछ नहीं बता सकता."

"अगर आपको जानना है कि सरकार में क्या हो रहा है तो आप मेरे मंत्रिमंडल के सदस्य बन जाइए. नेहरू ने उन्हें बिना विभाग के मंत्री का पद 'ऑफ़र' भी किया. लेकिन कृपलानी ने इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया."

"जब कृपलानी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया, तब से ये माना जाने लगा कि प्रधानमंत्री का ओहदा और स्तर पार्टी अध्यक्ष से बड़ा है. मेरा मानना है कि मनमोहन सिंह का ये मान लेना कि प्रधानमंत्री का पद पार्टी अध्यक्ष के पद से एक पादान नीचे है, ग़लत था."

बारू बताते हैं, "प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस बात की छूट नहीं थी कि वो अपनी टीम का ख़ुद चयन करें. रोज़ के स्तर पर सोनिया गाँधी के निर्देश अहमद पटेल या पुलक चटर्जी के ज़रिए मनमोहन सिंह के पास आते थे. पटेल ही उन लोगों की लिस्ट प्रधानमंत्री के पास लाते थे, जिन्हें सोनिया मंत्रिमंडल में रखना या निकालना चाहती थीं."

"एक बार वो सोनिया का संदेश लेकर प्रधानमंत्री द्वारा मंत्रिमंडल फेरबदल में राष्ट्रपति को मंत्रियों के नाम भेजे जाने से तुरंत पहले मनमोहन सिंह के पास पहुंचे. दूसरी लिस्ट टाइप करने का समय नहीं था. इसलिए मूल लिस्ट में एक नाम पर 'व्हाइटनर' लगा कर दूसरा नाम लिखा गया."

"इस तरह आँध्र प्रदेश के सांसद सुबिरामी रेड्डी को मंत्री की शपथ दिलाई गई और हरीश रावत ( जो बाद में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री बने) का नाम काट दिया गया. सोनिया गांधी का ये भी प्रयास रहता था कि सरकार की सामाजिक नीतियों का श्रेय भी प्रधानमंत्री को न मिल कर पार्टी को मिले."

मैंने संजय बारू से पूछा कि क्या इसके ज़रिए सोनिया गांधी मनमोहन सिंह को बताना चाह रही थीं कि 'हू इज़ द बॉस?'

बारू का जवाब था, "मेरे ख्याल से ये सोनिया गाँधी की कोशिश नहीं थी, बल्कि पार्टी के दूसरे नेताओं की कोशिश थी. उनका मानना था कि पार्टी प्रधानमंत्री से बड़ी है और इस तरह की चर्चा कांग्रेस नेताओं में होती थी. प्रधानमंत्री की तरफ़ से कभी इसका प्रतिवाद नहीं किया गया."

राजनीतिक रूप से बहुत नज़दीकी से काम करने के बावजूद सोनिया और मनमोहन सिंह के बीच एक तरह की सामाजिक दूरी थी और वो आपस में घुलमिल नहीं पाते थे.

बारू कहते हैं, "दोनों परिवारों के बीच आना-जाना नहीं था. मैं नहीं समझता कि वो कभी चाय पर बैठ कर गप मारते थे. मैने मनमोहन सिंह की बेटियों को कभी राहुल गांधी या प्रियंका गाँधी से बात करते नहीं देखा. मेरे ख्याल में दोनों परिवारों के बीच जो थोड़ा बहुत रिश्ता था, वो मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही शुरू हुआ."

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